वादन संवाद, प्रस्तुतिकरण और लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की गवरी निराली है। गवरी का उदभव शिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। इसका आयोगन रक्षाबंधन के दुसरे दिन से शुरू होता है। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाती पर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में पुरुष पात्र होते है। इसके खेलों में गणपति काना-गुजरी, जोगी, लाखा बणजारा इत्यादि के खेल होते है।
दिवाली के अगले दिन, गोवर्धन पूजा का दिन होता है (गोवर्धन बृज में भगवान कृष्ण के जन्म स्थान के पास की पहाड़ी है)। दोपहर में ग्वाल भक्त पवित्र गायों के साथ खेलते हैं और उन्हें गौशाला से श्रीनाथ जी मंदिर ले जाते हैं। देर शाम को, कई प्रकार के स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों के अलावा, बड़ी मात्रा में चावल (जिसे 100 टीले कहा जाता है) को मूर्ति के सामने रखा जाता है, जो तब मध्य रात्रि में भील जनजाति के लोगों द्वारा लूटा जाता है। इसी तरह का समारोह द्वारिकादिश कांकरोली में भी मनाया जाता है
माँ पार्वती का प्रतीक गणगौर का त्यौहार न केवल राजसमन्द में मनाया बल्कि संपूर्ण राजस्थान में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है | राजसमन्द में यह त्यौहार राजसमन्द नगर परिषद् की ओर से हर वर्ष मार्च या अप्रैल के महीनों में तीन दिनों तक चलता है जिसमे की सवारी निकाली जाती है | मेला भी आयोजित होता है
राजसमन्द के गढ़बोर में स्थित श्री चारभुजानाथ जी के मंदिर में जलझुलनी एकादशी पर मेला भरता है , जहाँ इनका बालस्वरूप सरोवर स्नान के लिए रवाना होता है | एवं लाखों लोग सम्मिलित होते है |