चित्र शैलियाँ .

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मेवाड़ या उदयपुर शैली

उदयपुर शैली राजस्थान की मूल एवं सबसे प्राचीन शैली है। उदयपुर शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम के काल को माना जाता है। उदयपुर शैली का विकास महाराणा कुंभा के शासन काल में शुरू हुआ था। कलिला-दमना उदयपुर शैली के दो पात्र है। जगत सिंह प्रथम ने राजमहल में चितेरों की ओवरी ( तस्वीरों रो कारखानों ) नाम से चित्रकला का विद्यालय खोला था। मेवाड़ चित्रकला शैली को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय महाराजा जगत सिंह को दिया जाता है, महाराजा जगत सिंह के काल में मेवाड़ में रसिकप्रिया, रागमाला, गीत गोविंद जैसे विषय लघु चित्रों पर चित्रण हुआ। साहिबद्दीन व मनोहर उदयपुर शैली के प्रमुख चित्रकार है। 1605 में मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह प्रथम के समय चित्रित रागमाला का चित्रकार नसीरुद्दीन का संबंध मेवाड़ शैली से है। वर्तमान में इस चित्रित रागमाला का चित्र दिल्ली के अजायबघर में सुरक्षित है। मेवाड़ चित्रकला का शुरुआती उदाहरण रागमाला प्रसिद्ध श्रंखला से उत्पन्न हुआ। उदयपुर शैली के प्रमुख कलाकार - मनोहर, साहिबद्दीन, कृपाराम, उमरा। उदयपुर शैली के प्रमुख रंग - पीला और लाल रंग प्रधान। लाल व पीले सादा पट्टियों से चित्रित : हाशिये। उदयपुर शैली के प्रमुख चित्रित ग्रंथ - मेवाड़ शैली का प्रथम चित्रित ग्रंथ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी का चित्रण 1260 में रावल तेज सिंह के समय आहड़ में हुआ था। इस शैली के प्रमुख चित्र सुपासनाह चरितम।, रामायण, शूकर क्षेत्र महात्म्य, गीतगोविंद आख्यायिका आदि है। उदयपुर शैली के प्रमुख विषय - नायक नायिका भेद, रागमाला, लीलाओं का चित्रण, बारहमासा आदि प्रधान विषय है। उदयपुर शैली में पुरुष आकृति एवं वेशभूषा - लंबी मूछें, छोटा कद, गठीला शरीर, विशाल नयन, कपोल तक जुल्फे। सिर पर पगड़ी, लंबा घेरदार जामा, कमर में पटका, कानों में मोती। उदयपुर शैली में नारी आकृति - ओज, उदास व सरल भाव लिए चेहरे, गरुड़ के समान सीधी लंबी नाक, कमल आंखें, भरी हुई दोहरी चिबुक, चिबुक पर तिल, ठिगना कद, लंबी वेणी, पारदर्शी ओढ़नी एवं लहंगा। भौंहे नीम के पत्ते भांति। उदयपुर शैली की अन्य विशेषताएं: - बादल से युक्त नीला आकाश। गुर्जर व जैन शैली से प्रभावित। कदंब वृक्ष व हाथी का चित्रण प्रधान। पोथी ग्रंथों का अधिक चित्रण। महाराणा अमर सिंह प्रथम के समय से मेवाड़ शैली पर मुगल प्रभाव आने लगा। यह राजस्थान चित्रकला की मूल शैली मानी जाती है। कोयल, सारस व मछलियों से युक्त भरपूर प्रकृति चित्रण।

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नाथद्वारा (राजसमंद) शैली

नाथद्वारा शैली को वल्लभ शैली भी कहा जाता है। नाथद्वारा शैली के प्रमुख महाराजा - नाथद्वारा शैली का प्रारंभ एवं स्वर्णकाल राजसिंह के शासनकाल को माना जाता है। नाथद्वारा शैली के प्रमुख कलाकार - घासीराम, उदयराम, नारायण, चतुर्भुज। नाथद्वारा शैली के प्रमुख चित्रित ग्रन्थ एवं विषय - कृष्ण चरित्र की बहुलता के कारण माता यशोदा, बाल ग्वाल, नंद, गोपियां आदि का चित्रण विशेष तौर पर हुआ है। इस शैली में श्रीनाथजी के विग्रह के चित्र प्रमुखत: बने हैं। नाथद्वारा शैली के प्रमुख रंग - हरे एवं पीले रंग का अधिक प्रयोग हुआ है। पृष्ठभूमि में नींबुआ पीला रंग प्रयुक्त हुआ है। नाथद्वारा शैली में पुरुष आकृति एवं वेशभूषा - नाथद्वारा शैली में पुरुषों में गुसाइयों के पुष्ट कलेवर, नंद और अन्य बाल गोपालो का भावपूर्ण चित्रण हुआ है। नाथद्वारा शैली में नारी आकृति - नाथद्वारा शैली में स्त्रियों की आकृति में प्रौढ़ता, छोटा कद, तिरछी व चकोर के समान आंखें, छोटा कद, शारीरिक स्थूलता और भावों में वात्सल्य की झलक देखने को मिलती है। गायों का मनोरम अंकन। पृष्ठभूमि में सघन वनस्पति। पिछवाई व भित्ति चित्रण प्रमुख विशेषता। केंद्रीय आकृति प्राय: श्रीनाथजी की काली नील कांटी के रंग से अंकित। आसमान में देवताओं का अंकन। केले के वृक्ष की प्रधानता। इसका उद्भव व विकास नाथद्वारा में श्रीनाथजी के स्वरूप की स्थापना के बाद से ही माना जाता है।

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देवगढ़ शैली

देवगढ़ शैली के प्रमुख कलाकार - चोखा, कंवला, बैजनाथ। देवगढ़ शैली के प्रमुख चित्रित ग्रंथ एवं विषय - प्राकृतिक परिवेश, अंत:पुर, राजसी ठाठबाट, शिकार के दृश्य, श्रंगार, सवारी आदि का चित्र इस शैली का प्रमुख विषय रहा है। देवगढ़ शैली के प्रमुख रंग - देवगढ़ शैली में पीले रंग का बाहुल्य है। देवगढ़ शैली की विशेषताएं:- यह शैली मारवाड़, जयपुर व मेवाड़ की समन्वित शैली है। इस शैली में मोटी और सधी हुई रेखा हैं। सर्वप्रथम डॉक्टर श्रीधर अंधारे ने इस शैली को प्रकाशमान किया था।